This group of caves, locally known as Pandav Lena or Pandava's caves (19°56'27.93"N;73°44'55.46"E) has been cut in a long line on the north face of a hill, called Trirashmi in its inscriptions. The main interest of this group lies not only in its numerous inscriptions of great historical significant belonging to the reign of Satavahanas and Kshaharatas of Kshatrapas, but also in its representation of a brilliant phase in the rock cut architecture of 2nd century CE.
There are altogether twenty-four excavations though many of these are small and of less importance, beginning from the west end they may conveniently be numbered eastward. They are almost entirely of an early date and were excavated by Hinayana sect, devoid of images or any representation of Buddha as an object of worship. Mostly, the interior of the caves are starkly plain in contrast to the heavily ornamented exterior.
The important cave in this group is Cave No. 18 which is a chaityagriha and is the earliest of the caves belonging to 1st century BCE. The remaining are viharas. The chaitya divided into the usual nave, apse and aisles by octagonal pillars supports the entablature from which the vault of the nave rises, the apse has the usual votive stupa. The carving over the doorway is similar to wooden work.
Among the monasteries Cave No. 3,8,10,23 have outshone others in size, planning and splendours, and also won acclaim on account of their architectural grandeur and sculptural embellishment. Cave No.3 named as Gautamiputra Cave contains the inscription of GautamiBalasari, the mother of the most powerful Satavahana king. This is the largest vihara with eighteen cells Cave No. 8 named as Nahapana cave contain six inscription of the family of Nahapana. It is the second largestviharain this series and is purer in style and superior in execution. Cave No.10 is also known for its decorated pillar which is considered to be the best specimen of this age.
The beauty of these caves lies in their dignified façade, effectively composed and carved. The fleshy bodies, heavily emphasized sashesh, turbans and other details of the costume are strictly within the Indian tradition. The excavation of Pandav Lena not only display their artistic grade but at the same time they give glimpses of art, culture, religious and social setting of the ancient period.
पांडव लेणी या पाण्डव गुफाएँ के नाम से ज्ञात यह गुफा समूह (19º56’27.93”उत्तरीअक्षांश, 73º44’55.46” पूर्वी देशान्तर) इस पहाडी- जिसे यहाँ के अभिलेखों में त्रिरश्मी कहा गया है, के उत्तरी भाग में बनाई गई हैं| इन गुफाओं का महत्त्व केवल इनके उत्कीर्ण अनेकों अभिलेखों तक ही सीमित नहीं है वरन इस बात में भी है की ये दूसरी सदी ई. पूर्व में भारतीय गुफा वास्तु कला के सम्पन्न काल का प्रतिनिधित्व करते हैं|
यहाँ कुल मिलाकर 24 गुफाएँ हैं जिन्हें पश्चिम से प्रारंभ कर पूर्व की और बढ़ते हुए चिन्हित किया जा सकता है। ये सभी बौद्ध धर्म के हीनयान परंपरा के जान पड़ते हैं जिनमें बुद्ध या उनसे सीधे जुड़े किसी भी वस्तु की पूजा-अर्चना का कोई स्थान नहीं है। गुफाओं के बाहरी साज-सज्जा के विपरीत इनके आंतरिक भाग बिलकुल अलंकरण विहीन हैं।
इन गुफाओं में सबसे महत्वपूर्ण तथा प्राचीनतम गुफा सं० 18 है जो प्रथम सदी ई. पू. में निर्मित एक चैत्यगृह है। शेष सभी गुफाएँ विहार हैं। चैत्यगृह सामान्यतः नाभि अथवा मुख्य कक्ष, अंडभाग तथा प्रदक्षिणा पथ में बँटा है। मुख्य कक्ष व प्रदक्षिणा के मध्य अष्टकोणीय स्तंभों की पंक्तियाँ हैं जिनके ऊपर से छत की कमानियाँ अद्भुत होती हैं। अंड भाग में चैत्य बना है। इस गुफा के प्रवेश द्वार के ऊपर बने अलंकरण काष्ठ कला की अनुकृति हैं।
बौद्ध विहारों में गुफा सं० –3, 8,10 एवं 23 आकार, योजना एवं भव्यता की दृष्टि से शेष गुफाओं पर भारी पड़ते हैं साथ ही उनमें वास्तुकला व प्रतिमा कला की श्रेष्ठता भी देखी जा सकती है। गुफा सं० 3 के एक अभिलेख में शक्तिशाली सातवाहन शासक की माता गौतमी बालाश्री का नाम होने के कारण इसे गौतमीपुत्र गुफा भी कहा जाता है। 18 कक्षों के साथ यह यहाँ का सबसे बड़ा बौद्ध विहार है। गुफा सं० 8 में नहपान परिवार के 6 सदस्यों का नाम अंकित है। यह इस श्रृंखला में दूसरा बड़ा बौद्ध विहार है जो शैली तथा कला की दृष्टि से श्रेष्ठ व परिपूर्ण है। गुफा सं.–10अपने सुसज्जित स्तंभों के लिये प्रसिद्ध है जो तत्कालीन तक्षणकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं।
इन गुफाओं की सुन्दरता उनके सुन्दर व सुनियोजित ढंग से गढे गये मुखमंडलहैं। प्रतिमाओं के मांसल शरीर, भारी व प्रभावोत्पादक कमरबंद, सुसज्जित पगड़ियाँ तथा अन्य शरीराभूषण विशुद्ध भारतीय परम्परा में बने हैं। पांडव लेणी की गुफाएँ न केवल तत्कालीन कलात्मक श्रेष्ठता का प्रदर्शन करती हैं बल्कि ये प्राचीन भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक तथा सामाजिक वस्तुस्थिति की झाँकी भी प्रस्तुत करती हैं|
पांडव लेण्यांचा समूहाला ;20 05ष् 73 45ष्द्ध येथील षिलालेखात त्रिरष्मी लेणी असा उल्लेख आढळतो. प्रस्तुत लेण्या या पर्वताच्या उत्तरी भागात खोदल्या गेल्या आहेत. या लेण्यांचे महत्व केवळ येथील षिलालेखां पर्यंतच मर्यादित नसून हया ई.स.पूर्व दुस-या षतकातील भारतीय वास्तुकलेच्या सम्पन्न काळाचे सुध्दा प्रतिनिधित्व करतात.
या लेणी समूहात एकूण 24 लेण्या आहेत, या लेण्याचा क्रम पष्चिमे कडून पूर्वेकडे असा केलेला आहे. या सर्व लेण्या बौध्द धर्माच्या हिनयान परंपरेच्या आहेत, यात बुध्द आणि त्यांच्या संबंधित कुठल्याही वस्तुची पूजा-अर्चनेस कसलेही स्थान नाही आहे. लेण्यांच्या बाहेरील अलंकरणाच्या विपरित आंतरिक भाग अगदी अलंकरण विहिन आहे.
या लेण्यांत सर्वात महत्वपूर्ण तसेच प्राचीन, लेणी क्र. 18 आहे, ही ई. पू. प्रथम षतकातील निर्मित एक चैत्यगृह आहे. अन्य सर्व लेण्या विहार आहेत. चैत्यगृह सामान्यतः नाभी अथवा मुख्य कक्ष, अंड तसेच प्रदक्षिणा पथा मध्ये विभागलेले आहे. मुख्य कक्ष आणि प्रदक्षिणा पथामध्ये अश्टकोणीय स्तंभाची ओळ आहे, या वर छताची सुंदर कमान आहे. अंड भागात चैत्य निर्मित आहे. या लेण्यांच्या प्रवेषद्वारा वरील अलंकरण लाकडी कलेची प्रतिकृति आहे.
बौध्द विहारांमध्ये लेणी क्र. 3, 8, 10 तसेच 23 आकार, योजना आणि भव्यतेमुळे अन्य लेण्यांच्या तुलनेत विषाल आणि सुंदर आहेत. तसेच यात वास्तुकला आणि षिल्पकलेची श्रेश्ठता ही दिसते. लेणी क्र. 3 च्या एका षिलालेखात षक्तिषाली सातवाहन षासकाची आई गौतमी बलश्रीचे नाव असल्याने या लेणीस गौतमीपुत्र लेणी असेही म्हटल्या जाते, प्रस्तुत लेणी ही 18 कक्षां सोबतच हे येथील सर्वात मोठे बौध्द विहार आहे. लेणी क्र. 8 मध्ये नहपान कुटुंबातील 6 सदस्यांचे नाव अंकित आहे. हे येथील श्रंृखलेत दूसरे मोठे बौध्द विहार आहे. ही लेणी षैली तसेच कलेच्या दृश्टिकोनातून श्रेश्ठ व परिपूर्ण आहे. लेणी क्र. 10 अलंकृत स्तंभाकरिता प्रसिध्द आहे, जी तत्कालिन तक्षणकलेचे सर्वोत्कृश्ट उदाहरण आहे.
या लेण्यांची सुंदरता अर्थात त्यांच्या सुंदर व सुनियोजित प्रकारे कोरलेल्या मुखमंडलामुळे आहे. प्रतिमेतील भरीव षरीर, भारी व प्रभावषील कमरबंद, सुसज्जित पगडी तसेच अन्य षिरोभुशण विषुध्द भारतीय परंपरेत निर्मिंत केले आहेत. पांडव लेणी ही न केवळ तत्कालिन कलात्मक श्रेश्ठतेचे प्रर्दषन करते तर प्राचीन भारताची संास्कृतिक, धार्मिक तसेच सामाजिक वस्तुस्थितीची झलक प्रस्तुत करत आहे.
(1) Fergusson, James. & Burgess, James. 2000. The Cave temple of India, MunshiramManoharlal Publishers Pvt. Ltd., Post Box 5715, 54 Rani Zhansi Road, New Delhi 110055 (IIIrd Edition) Page No.: - 263-280. (2) Burgess, James. 1964. Archaeological Survey of Western India Vol IV., Report on the Buddhist Cave temples and their Inscriptions., (Supplementary to the Volume on “The Cave Temples of India”) Varanasi, Shri Rameshwar Singh for Indological Book House, Page No.: - 37-42, & 89-116. (3) Edited by Government of Maharashtra. 1975. Maharashtra State Gazetteers (Government of Maharashtra) – NASIK District (Revised Edition) Bombay, Gazetteers Department Government of Maharashtra, Page No.: - 992-1011.